एक्स जज साहब मौज में, दो मौत मांग रही इन्साफ – कानून हुआ शर्मिंदा

महेंद्र सिंह
महेंद्र सिंह

लखनऊ की पॉश कॉलोनी हजरतगंज में रहने वाली कविता निषाद ने बुधवार को गोमती में छलांग लगाकर अपनी जान दे दी। एक और जान, जो सिर्फ इसलिए गई क्योंकि इस देश की न्याय प्रणाली रुतबे के आगे झुकती रही।

2 अप्रैल से शुरू हुआ वो सिलसिला जो 26 जून को खत्म हो गया

कविता के पति महेश निषाद ने 2 अप्रैल को आत्महत्या कर ली थी। मरने से पहले उन्होंने एक वीडियो में सीधे सेवानिवृत्त जज अनिल कुमार श्रीवास्तव और उनकी पत्नी को जिम्मेदार ठहराया।
FIR दर्ज हुई, लेकिन धारा इतनी हल्की थी कि आरोपी ने “आदरपूर्वक” कोर्ट से स्टे ले लिया। गिरफ्तारी नहीं हुई।

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अब नहीं मिलूंगा मम्मी… – महेश का आखिरी संदेश

महेश, जो कई सालों से जज साहब के घर खाना बनाते थे, उन पर 6.5 लाख की चोरी का आरोप लगा। थाने बुलाया गया, पीटा गया, धमकाया गया – और आखिरकार उन्होंने कहा, “मम्मी जी, अब नहीं मिलूंगा…और फांसी लगा ली।

कविता की जद्दोजहद: हर दरवाज़े पर दस्तक, हर जगह खामोशी

पति की मौत के बाद कविता न्याय के लिए भटकती रहीं। चौकी से थाने, थाने से एसएसपी कार्यालय – लेकिन ‘सम्माननीय लोगों’ के आगे सिस्टम बार-बार झुकता रहा। भाई अंशु की आंखें भर आईं, “अगर समय रहते कार्रवाई होती, तो बहन आज ज़िंदा होती।”

FIR थी, पर गिरफ्तारी वाली नहीं – वाह रे सिस्टम!

हजरतगंज इंस्पेक्टर का बयान मानो एक स्क्रिप्ट हो, “गिरफ्तारी वाली धारा नहीं थी, कोर्ट से स्टे है, जांच चल रही है…”

सवाल यही है – क्या न्याय सिर्फ फाइलों में ही रह गया है?

संपत्ति विवाद या ध्यान भटकाने की चाल?

पुलिस दावा कर रही है कि कविता के परिवार में संपत्ति विवाद था। लेकिन क्या हर आत्महत्या को ‘पारिवारिक विवाद’ कहकर सिस्टम अपनी जिम्मेदारी से भाग सकता है?

दो मौतें, एक सवाल – क्या रुतबा इंसाफ से बड़ा है?

महेश और कविता की मौतें ये बताती हैं कि गरीब का न्याय अब “केस नंबर” में बदल चुका है।

“जज साहब मौज में हैं,
केस स्टे में है,
पुलिस जांच में है,
और जनता कब्र में।”

गांव-गांव सरकार भवन का क्या फायदा?

सरकार कहती है – “दरखास दो, तुरंते सुनवाई” लेकिन जब एक महिला खुलेआम आत्महत्या करती है, और उसके पास हर स्तर पर न्याय की कॉपी रद्दी हो चुकी होती है, तो ये सिस्टम के सबसे बड़े फेल्योर की चिट्ठी बन जाती है।

अब जनता पूछ रही है…

क्या जज होना न्याय से ऊपर होना है?

क्या सम्मानित पद का मतलब छूट?

क्या गरीब की जान अब सिर्फ एक अख़बार की हेडलाइन है?

लखनऊ की जनता का सवाल: क्या इंसाफ सिर्फ रसूख वालों के लिए है?

कविता निषाद की आत्महत्या की खबर ने लखनऊ की आम जनता को झकझोर दिया है। गलियों, नुक्कड़ों और चाय की दुकानों पर एक ही बात हो रही है — “अगर एक महिला न्याय के लिए गोमती में कूद पड़ी, तो सोचिए सिस्टम कितना बहरा हो चुका है?”

राहुल मिश्रा, मोबाइल दुकान चलाते हैं, कहते हैं- अगर यही मामला किसी रसूखदार की बहन का होता, तो पुलिस दरवाज़ा तोड़कर गिरफ़्तारी करती। यहां तो FIR भी सिर्फ दिखावे की थी।

रेखा वर्मा, एक सामाजिक कार्यकर्ता, सवाल उठाती हैं- “कोर्ट से स्टे किसे मिलता है? वही जिसे वकील, पैसा और पहुँच मिली हो। आम आदमी तो सिर्फ तारीखों में ही मरता है।”

बुज़ुर्ग मोहम्मद इरफान कहते हैं- अगर किसी के पति की मौत के बाद भी इंसाफ न मिले, तो पुलिस किस काम के?”

छात्रा प्रांजल श्रीवास्तव, कहती हैं- “हर बार आम जनता ही मरेगी? कभी कोई ‘सम्मानित’ भी जवाब देगा?”

रिक्शा चालक अर्जुन पासी की बातें दिल छू जाती हैं- “कल मेरी बहन होती, तो क्या होता? पुलिस हमें तो बिना वजह उठा लेती है, पर यहां आरोपी को ‘सम्मान’ दिया जा रहा है।”

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